उर्दू अदब के अजीम शायर फैज़ अहमद फैज़ का जन्म 7 फरवरी 1911 को हुआ था.वे पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और 1951 में उनको कारावास की सजा हुई थी. आज "कुछ और गीतों.." की श्रृंखला में पेश हैं उनकी ये बहुचर्चित कविता .... इसे स्वर दिया है इक़बाल बानो ने ...
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हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन की जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल पे लिखा है
जब जुल्मो-सितम के कोहे-गरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़े-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेग अल्लाह का
जो गायब भी है, हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्क़े-खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
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अहले-सफा pure people; अनलहक़ I am Truth, I am God. Sufi Mansoor was hanged for saying it; अज़ल eternity, beginning (opp abad); खल्क़ the people, mankind, creation; लौह a tablet, a board, a plank; महकूम a subject, a subordinate; मंज़र spectacle, a scene, a view; मर्दूद rejected, excluded, abandoned, outcast; नाज़िर spectator, reader
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उर्दू शब्दों के अर्थ यहाँ से साभार ...
Monday, November 15, 2010
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"बस नाम रहेगा अल्लाह का " कहने वाले फैज़ एक बार सज़ा से बच भी सकते थे लेकिन अनअल हक़ कहने वाली व्यवस्था को यह कैसे मंज़ूर होता । सब ताज़ उछाले जायेंगे सब तख़्त गिराये जायेंगे इस दिन की प्रतीक्षा में हर मज़लूम है ।
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